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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


धिक्कार-2 मुंशी प्रेम चंद

12
एक सप्ताह गुजर गया था। लाला वंशीधर दफ़्तर से आकर द्वार पर बैठे ही थे कि इंद्रनाथ ने आकर प्रणाम किया। वंशीधर उसे देखकर चौंक पड़े, उसके अनपेक्षित आगमन पर नहीं, उसकी विकृत दशा पर, मानो वीतराग शोक सामने खड़ा हो, मानो कोई हृदय से निकली हुई आह मूर्तिमान् हो गयी हो।
वंशीधर ने पूछा- तुम तो बंबई चले गये थे न?
इंद्रनाथ ने जवाब दिया- जी हाँ, आज ही आया हूँ।
वंशीधर ने तीखे स्वर में कहा- गोकुल को तो तुम ले बीते !
इंद्रनाथ ने अपनी अंगूठी की ओर ताकते हुए कहा- वह मेरे घर पर हैं।
वंशीधर के उदास मुख पर हर्ष का प्रकाश दौड़ गया। बोले- तो यहाँ क्यों नहीं आये? तुमसे कहाँ उसकी भेंट हुई? क्या बंबई चला गया था?
‘जी नहीं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गये।‘
‘तो जाकर लिवा लाओ न, जो किया अच्छा किया।‘
यह कहते हुए वह घर में दौड़े। एक क्षण में गोकुल की माता ने उसे अंदर बुलाया।
वह अंदर गया तो माता ने उसे सिर से पाँव तक देखा- तुम बीमार थे क्या भैया? चेहरा क्यों इतना उतरा है?
गोकुल की माता ने पानी का लोटा रखकर कहा- हाथ-मुँह धो डालो बेटा, गोकुल है तो अच्छी तरह? कहाँ रहा इतने दिन ! तब से सैकड़ों मन्नतें मान डालीं। आया क्यों नहीं?
इंद्रनाथ ने हाथ-मुँह धोते हुए कहा- मैंने तो कहा था, चलो, लेकिन डर के मारे नहीं आते।
‘और था कहाँ इतने दिन?’
‘कहते थे, देहातों में घूमता रहा।‘
‘तो क्या तुम अकेले बंबई से आये हो?’
‘जी नहीं, अम्माँ भी आयी हैं।’
गोकुल की माता ने कुछ सकुचाकर पूछा- मानी तो अच्छी तरह है?
इंद्रनाथ ने हँसकर कहा- जी हाँ, अब वह बड़े सुख से हैं। संसार के बंधनों से छूट गयीं।
माता ने अविश्वास करके कहा- चल, नटखट कहीं का ! बेचारी को कोस रहा है, मगर इतनी जल्दी बंबई से लौट क्यों आये?
इंद्रनाथ ने मुस्कराते हुए कहा- क्या करता ! माताजी का तार बंबई में मिला कि मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दे दिये। वह लालपुर में पड़ी हुई थी, दौड़ा हुआ आया। वहीं दाह-क्रिया की। आज घर चला आया। अब मेरा अपराध क्षमा कीजिए।
वह और कुछ न कह सका। आँसुओं के वेग ने गला बंद कर दिया। जेब से एक पत्र निकालकर माता के सामने रखता हुआ बोला- उसके संदूक में यही पत्र मिला है।
गोकुल की माता कई मिनट तक मर्माहत-सी बैठी ज़मीन की ओर ताकती रही ! शोक और उससे अधिक पश्चाताप ने सिर को दबा रखा था। फिर पत्र उठाकर पढ़ने लगी-
‘स्वामी’
जब यह पत्र आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक मैं इस संसार से विदा हो जाऊँगी। मैं बड़ी अभागिन हूँ। मेरे लिये संसार में स्थान नहीं है। आपको भी मेरे कारण क्लेश और निंदा ही मिलेगी। मैने सोचकर देखा और यही निश्चय किया कि मेरे लिये मरना ही अच्छा है। मुझ पर आपने जो दया की थी, उसके लिये आपको क्या प्रतिदान करूँ? जीवन में मैंने कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं की, परंतु मुझे दु:ख है कि आपके चरणों पर सिर रखकर न मर सकी। मेरी अंतिम याचना है कि मेरे लिये आप शोक न कीजिएगा। ईश्वर आपको सदा सुखी रखे।‘
माताजी ने पत्र रख दिया और आँखों से आँसू बहने लगे। बरामदे में वंशीधर निस्पंद खड़े थे और जैसे मानी लज्जानत उनके सामने खड़ी थी।

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